تَرْکِ تَعَلُقّات پہ رویا نَہ تُو نَہ مَیں لیکِن یہ کْیا کہ چَین سے سویا نَہ تُو نَہ مَیں
وہ ہَمْسَفَر تھا مَگَر اُس سے ہَمْنَوَائی نَہ تھی کہ دُھوپ چھاؤں کا عالَم رَہا جُدائی نَہ تھی
عَداوَتیں تِھیں، تَغافُل تھا رَنجِشیں تِھیں مَگَر بِچَھڑنے والے میں سَب کُچھ تھا بے وَفائی نَہ تھی
کاجَل ڈالو کُرکُرا سُرمَہ سَہا نَہ جائے جِن نَین میں پِی بَسے دُوجا کَون سَمائے؟
بِچھڑتے وَقْت اُن آنکھوں میں تھی ہَماری غَزَل غَزَل تھی وہ جو کِسی کو کَبھی سُنائی نَہ تھی
तर्क-ए-तअलुक़्क़ात पह रोया ना तू ना मैं लेकिन यह क्या कह चैन से सोया ना तू ना मैं
वह हम्सफ़र था मगर उस से हम्नवाई ना थी कह धूप छाओं का आलम रहा जुदाई ना थी
अदावतें थीं, तग़ाफ़ुल था रनजिशें थीं मगर बिछड़ने वाले में सब कुछ था बे वफ़ाई ना थी
काजल डालो कुरकुरा सुरमा सहा ना जाए जिन नैन में पी बसे दूजा कौन समाए?
बिछड़ते वक़्त उन आंखों में थी हमारी ग़ज़ल ग़ज़ल थी वह जो किसी को कभी सुनाई ना थी
दफ़ा १: तमाम इनसान आज़ाद और हुक़ूक़ ओ इज़्ज़त के एतबार से बराबर पैदा हुए हैं। उन्हें ज़मीर और अक़्ल वदियत हुई हैं। इस लिए उन्हें एक दूसरे के साथ भाई चारे का सुलूक करना चाहिए।